शिमला समझौते का ऐतिहासिक दिन, ये तारीख याद रहेगी (PICS)
punjabkesari.in Monday, Jul 02, 2018 - 11:16 AM (IST)

शिमला (संजीव): भारत-पाक संबंधों का जब भी जिक्र आएगा 2 जुलाई 1972 की तारीख हमेशा याद रहेगी। आज उस ऐतिहासिक समझौते को, जो इंदिरा गांधी और जुल्फिकार अली भुट्टो के बीच हुआ था, पूरे 46 साल हो गए हैं। इतने लंबे दौर में कई चीज़ें बदल जाती हैं। लेकिन अगर आज भी आप शिमला जाकर उन जगहों को देखें, जहां इस समझौते की पटकथा पूरी हुई थी तो ऐसा प्रतीत होता है कि मानो कल ही की बात है। बुज़ुर्ग लोग आज भी उस दौर की बातें सुनाते हैं। यादों के इस सफर को शुरू करते हैं शिमला के राजभवन से, जिसे उस समय हिमाचल भवन या बार्नेस कोर्ट भी कहा जाता था। साल 1971 के युद्ध के बाद भुट्टो ने इंदिरा गांधी के पास बातचीत का संदेश भिजवाया। इंदिरा ने बात आगे बढ़ाने का फैसला लिया और 28 जून से 2 जुलाई के बीच शिमला में शिखर वार्ता तय हुई। तय कार्यक्रम के अनुसार पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल के साथ भुट्टो पहुंचे। भारतीय दल वहां पहले से मौजूद था। भारत ने पाकिस्तान के सामने दो तीन प्रमुख बातें रखीं लेकिन पाकिस्तान ने इसे मानने से इंकार कर दिया।
जब बिगड़ गई बात
बात बिगड़ गई और पहली जुलाई को तय हो गया कि समझौता नहीं होगा। दो जुलाई को पाकिस्तानी दल के लिए विदाई भोज रखा गया था। उम्मीद थी कि भोजन के दौरान शायद कोई बात बन जाएगी। लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ तो वहां मौजूद मीडिया समेत अधिकांश अधिकारियों ने भी सामान समेट लिया था। उस समय इस घटना को कवर कर रहे वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश लोहुमी बताते हैं--- सब अपना सामान बांध वापस जाने की तैयारी में थे। अचानक उन्हें राजभवन से संदेसा आया। रात के साढ़े नौ बजे थे। वे जब राजभवन पहुंचे तो सामने इंदिरा गांधी और जुल्फिकार भुट्टो बैठे थे। करीब एक घंटे की बातचीत के बाद तय हुआ कि समझौता होगा और अभी होगा। आनन फानन में समझौते के दस्तावेज बनाए गए और अंतत: 12 बजकर 40 मिनट पर शिमला समझौता हो गया। उसके ठीक तीन मिनट बाद ही इंदिरा गांधी वहां से खुद दस्तावेज लेकर चली गईं। वे रिट्रीट(वर्तमान राष्ट्रपति अवकाश गृह) में ठहरी थीं जबकि भुट्टो राजभवन में ही रुके थे। सुबह इंदिरा गांधी उनको विदाई देने हेलीपैड पहुंचीं हालाँकि तब दोनों नेताओं में कोई ख़ास बातचीत नहीं हुई।
सब एकदम से हुआ
लोहुमी बताते हैं कि यह सब एकदम से ही हुआ। जिस टेबल पर आमने-सामने बैठ दोनों नेताओं ने समझौते पर दस्तखत किए उस पर टेबल क्लॉथ तक नहीं था। सामने से पर्दा उतरवाकर उसे बिछाया गया। यहां तक की दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करने के लिए जब पेन की बात आई तो एक पत्रकार ने अपना पेन दे दिया। यहां तक कि दस्तावेजों पर दोनों देशों की मुहर तक नहीं लग पाई क्योंकि पाकिस्तानी दल अपना सामान सड़क मार्ग से दोपहर को भी भेज चुका था। ऐसे में इंदिरा गांधी ने भी मुहर के बिना दस्तखत किए (मुहरें बाद में लगीं)। जैसे ही दूरदर्शन का कैमरा आया तो अगले तीन मिनट में हस्ताक्षर करने की प्रक्रिया पूरी हो गई।
भारत का मास्टर स्ट्रोक
दरअसल भारत ने इस समझौते के जरिए एक बड़ा मास्टर स्ट्रोक लगाया था। भुट्टो पर 93 हजार पाक सैनिकों को भारतीय कैद से रिहा करवाने का दबाव था। इसलिए उन्होंने इस मौके पर कश्मीर का जिक्र तक नहीं किया। उधर समझौते में भुट्टो के हाथ से लिखवा लिया गया कि दोनों देश 17 दिसंबर 1971 की स्थितियों के अनुसार अपनी-अपनी जगह पर रहेंगे और उसी को एलओसी माना जाएगा। भारत ने भुट्टो से यह लिखवाने के बाद यह भी लिख दिया कि भविष्य में दोनों देश अपने झगड़े आपस में बिना किसी मध्यस्थता के मिल-बैठ कर सुलझाएंगे। यह मास्टर स्ट्रोक था जिसके दम पर आज तक भारत तीसरे पक्ष को दूर रखने में कामयाब है।
बेनजीर पर फिदा शिमला
इस यात्रा में भुट्टो के साथ उनकी बेगम को आना था। लेकिन बीमार होने के चलते उनकी जगह भुट्टो अपनी बेटी बेनजीर को ले लाए। जो उस समय महज 19 साल की थीं। शिमला के बुज़ुर्ग उस वक्त को याद करके कहते हैं कि लोग बेनजीर को एक नज़र देखने के लिए दीवाने हुए जा रहे थे। जहां भी वे जातीं लोग उमड़ पड़ते। डेवीकोज रेस्त्रां में जब बेनजीर कॉफी पीने अंदर गईं तो तीन घंटे तक लोग उनके निकलने का इंतज़ार करते रहे। बेनजीर भुट्टो की जीवनी -डॉटर ऑफ ईस्ट में भी इसका जिक्र है कि शिमला बेनजीर की झलक पाने को दीवाना हो गया था।
इंदिरा ने खरीदे सिगार और पर्दे
शिखर वार्ता के दौरान इंदिरा गांधी के स्पष्ट निर्देश थे कि मेहमानों का पूरा ख्याल रखा जाए। यहां तक कि भुट्टो की पसंद का सिगार खरीदने खुद इंदिरा गांधी मालरोड की प्रतिष्ठित दुकान गेंदामल हेमराज तक गई थीं। मालरोड की ही एक अन्य दुकान स्टाईलको से उन्होंने अंतिम दौर की बातचीत के लिए परदे खरीदे थे।
आज भी मौजूद है टेबल
शिमला समझौता जिस टेबल पर हुआ उसे आनन-फानन में राजभवन के किसी कोने से लाकर रखा गया था। जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है उसपर टेबल क्लॉथ तक नहीं था। लेकिन आज वही टेबल ऐतिहासिक हो गया है और राजभवन के मुख्य हॉल में शान से रखा गया है। उस वक्त रखे गए दोनों देशों के छोटे ध्वज भी टेबल पर मौजूद हैं। समझौते की गवाह एक श्वेत-श्याम तस्वीर टेबल के पीछे दीवार पर टंगी है तो दो फ्रेम की गई तस्वीरें टेबल पर हैं। तमाम सुरक्षा प्रबंधों के बावजूद इस टेबल को राजभवन जाकर देखने वालों को आज भी बिना बिलंब भीतर जाने की इज़ाज़त दी जाती है।
क्या हुआ आखिरी पलों में ?
सब बिगड़ जाने के बाद अचानक ऐसा क्या हुआ कि समझौता हो गया। उन तीन घंटों में ऐसी क्या बात हुई जो भुट्टो दस्तखत करने को मान गए? ये बात दिलचस्प ढंग से किसी को भी पता नहीं। न तो कभी भुट्टों ने और न ही इंदिरा गांधी ने इसे कभी जाहिर किया। उसी समझौते के गवाह रहे एक अन्य पत्रकार रवींद्र रणदेव (अब स्वर्गीय) ने एक बार बताया था कि भोजन के बाद इंदिरा ने भुट्टो को कहा था कि- बिना समझौता किए यहां से तो चले जाओगे, पर पाकिस्तान के कहां जाओगे (शायद उनका इशारा बिना युद्धबंदियों के लौटने पर होने वाली भुट्टो की फजीहत की तरफ था)। रणदेव बताते थे कि शायद इसी के बाद भुट्टो ने इरादा बदला था। बहरहाल इस बात की आधिकारिक पुष्टि कभी नहीं हुई।