शुकदेव ऋषि थट्टा ने तोड़ी वर्षों पुरानी परम्परा, मूल स्थान में दी देवियों को प्रवेश की अनुमति

punjabkesari.in Friday, Nov 23, 2018 - 11:43 AM (IST)

मंडी (ब्यूरो): शुकदेव ऋषि थट्टा ने वर्षों पुरानी परम्परा को तोड़ते हुए अपने मूल स्थान में इलाके की देवियों को प्रवेश की अनुमति दे दी है। थट्टा में 14वीं सदी के पैगोड़ा शैली के मंदिर के जीर्णाेद्धार के बाद यहां पहली बार शिवाबदार इलाके की देवियों को मंदिर में प्रवेश की अनुमति दी गई जबकि इससे पहले ऋषि के मूल स्थान में देवी अंदर नहीं जा सकती थी। बता दें कि देव परंपरा के अनुसार देवी-देवता भी मानवीय रिश्तों की डोर में बंधे हुए हैं। इनके एकांत स्थल थट्टा के प्राचीन मंदिर में पहली बार 5 देवियों ने प्रवेश किया। 
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यह है मान्यता

देव कारकूनों की मानें तो एक प्राचीन कहावत है कि 7 बहनों ने तिल का एक दाना आपस में बांटकर खाया था और ये 7 बहनें शिवाबदार क्षेत्र की प्रमुख देवियों के रूप में जानी जाती हैं। इनमें सबसे बड़ी देवी शत्रु नाशनी देवी बगलामुखी को माना जाता है। इसके बाद मैहणी, धारानागण, सोना सिंहासन, कांढी घटासण, निशू पराशरी और बूढ़ी बुछारण प्रमुख देवियां हैं। इनमें से 5 देवियां अपने भाई शुकदेव ऋषि के मंदिर के जीर्णोद्धार के अवसर पर हुए प्रतिष्ठा समारोह में शामिल हुईं और हजारों लोगों को प्रीतिभोज खिलाया गया। 
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देवता ने ही तपस्या स्थल में 7 बहनों को बुलाने की इजाजत दी

शुकदेव ऋषि जिन्हें स्थानीय बोली में थट्टी मड़घयाल के नाम से जाना जाता है, के वजीर मोहन लाल ठाकुर ने बताया कि देवता के इतिहास में यह पहली बार हुआ है कि देवता के इस मंदिर में 5 देवियों ने प्रवेश किया है। इससे पूर्व यह परंपरा रही है कि सभी देवी-देवता मंदिर के बाहर से ही वापस लौट जाते थे। इस बारे में जब देवता से पूछा गया तो उन्होंने अपने एकांत में अपनी 7 बहनों को बुलाने की इजाजत दे दी जिनमें से 5 देवियां इस समारोह में शरीक हुईं। 

काष्ठफलक पर की गई है खूबसूरत नक्काशी 

देवता के कटवाल इंद्र सिंह ने बताया कि यह देवता का मूल मंदिर है। देव शुकदेव ऋषि का यह मंदिर 14वीं शताब्दी का पैगोड़ा शैली का बना हुआ है, जिसमें काष्ठफलक पर खूबसूरत नक्काशी का काम किया गया है। इस मंदिर के जीर्णोद्धार का कार्य 11 अप्रैल, 2014 को शुरू किया गया था जो अब बनकर तैयार हुआ है। देवता कमेटी ने 250 परिवारों और 7 पंचायतों तथा मंडी और कुल्लू के अनेक लोगों के सहयोग से इसका निर्माण किया। इसमें बांस गांव के कारीगरों के अलावा हटौण, डयोड व शारटी के कारीगरों ने उपवास रखकर कार्य किया है जबकि देवता के मंदिर के लिए लकड़ी भी लोगों ने नंगे पांव जंगल में जाकर अपने कंधों पर उठाकर लाई है। मंदिर की इस परिक्रमा में सप्तऋषि, देव पराशर, गरूड़, नारसिंह व महिषासुर मर्दनी आदि देवी-देवताओं की प्रतिमाएं काष्ठफलक पर उकेरी गई हैं। 


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