यहां है शनिदेव के गुरु का मंदिर, 12 राशियों की मन्नत के लिए स्थापित हैं स्तम्भ (PICS)

punjabkesari.in Sunday, Oct 20, 2019 - 04:03 PM (IST)

बैजनाथ (मुनीष दीक्षित): कांगड़ा जिला के बैजनाथ में एक मंदिर ऐसा भी है, जहां अकाल मृत्यु के भय से मुक्ति मिलती है और शनि की साढ़ेसाती भी दूर होती है। यह देश का शायद ऐसा पहला मंदिर होगा, जहां भगवान महाकाल के साथ भगवान शनि देव भी विराजते हैं। बड़ी बात यह है कि इस मंदिर में शनि देव का क्रूर नहीं बल्कि सौम्य रूप है। इस मंदिर में भगवान शनि देव भाद्रपद मास में अपनी माता छाया के साथ स्थापित हुए थे। वहीं शनि देव महाकाल के शिष्य भी है। ऐसे में यहां यहां शनि क्रूर नहीं बल्कि सौम्य हैं।  
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क्या है महाकाल और शनिदेव का रिश्ता

कहा जाता है कि शनिदेव ने महाकाल को अपना गुरु बनाया था और तभी से गुरु-शिष्य के रिश्ते को मानते हुए लोग भगवान शिव के महाकाल रूप के साथ शनिदेव पूजा कर रहे थे। लेकिन 2005 में यहां अलगा मंदिर बनाकर शनिदेव शिला की स्थापना की गई। 
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12 राशियों की मन्नत के लिए स्थापित हैं स्तम्भ

आपको ये भी बता दें कि इस मंदिर में 12 राशियों के गृह शांति के लिए अलग-अलग 12 स्तम्भ बनाए गए हैं। यहां डोरी बांधने का अपना विशेष महत्व है। भगवान शनिदेव हर प्राणाी में 12 राशियों के ऊपर चलते हैं। मनुष्य के जीवनकाल में शनिदेव सभी राशियों में आते हैं। यहां वैदिक शैली में निर्मित भगवान शनिदेव का मंदिर बनाया गया है। इसमें 12 राशियों के खंभे हैं। अपनी-अपनी राशि के खंभे में धागे बांधने से शनि की शांति होती है और जीवन में रोग, अल्प मौत तथा कोर्ट कचहरी के केसों से मुक्ति मिलती है।
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देश भर में महाकाल का एक मंदिर उज्जजैन में है और दूसरा मंदिर हिमाचल के बैजनाथ में। कहा जाता है इस मंदिर में स्वामी विवेकानंद भी कुछ समय तक रूके थे। यहां कुछ साल पहले मां दुर्गा के मंदिर की स्थापना की गई थी। इस स्थापना के दौरान भी कई घटनाएं घटी थी। इस स्थान में भाद्रपद माह में भगवान शनि देव के मेले लगते हैं। इसमें लाखों श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है। 
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भगवान भोलेनाथ ने जानिए क्यों धारण किया था महाकाल का रूप 

कहा जाता है कि यहां भगवान भोलेनाथ ने महाकाल का रूप धारण करके जालंधर दैत्य का संहार किया था। इसी स्थान पर जालंधर ने अपनी अंतिम इच्छा में महादेव से कहा था कि उसके वध के बाद इस स्थान में लोगों को अकाल मृत्यु से मुक्ति व मोक्ष प्राप्ति हो सके। यह मंदिर कभी अघोरी साधुओं की तपोस्थली भी रहा है। यहां आज से पांच दशक पहले तक लोगों को केवल शिवरात्रि पर ही आने की अनुमति थी। 
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