हाल-ए-हिमाचल: BJP में बगावत सही संकेत नहीं

Tuesday, Oct 01, 2019 - 12:44 PM (IST)

शिमला (संकुश): सिकटा को गुस्सा क्यों आता है ?? दयाल प्यारी काली क्यों बन जाती है ?? चौधरी बागी क्यों हो जाता है ?? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता की मदहोशी में डूबी जयराम सरकार के सामने अचानक यह सब प्रश्न खड़े हो गए हैं और वह भी उपचुनाव में। बीजेपी की जो टीम कल तक एक काबीना मंत्री और महिला मोर्चा अध्यक्ष को धकिया कर बाहर करने के बाद मूंछ मरोड़ती नहीं थक रही थी उसी की पेशानी पर अब पसीना साफ देखा जा सकता है और वह भी उपचुनाव में जिसे सत्ता की बपौती माना जाता है। जिस बीजेपी का अवतरण धूमल-शांता की खींचतान से मुक्ति दिलाने वाला माना जा रहा था वहीं बीजेपी इतनी जल्दी बगावत का शिकार जाएगी यह शायद ही उसके कार्यकर्ताओं, समर्थकों और समीक्षकों ने सोचा होगा। सब यही ढूंढ रहे थे कि जयराम ने नई शुरुआत की है। 

स्वंय जयराम ठाकुर भी कहते नहीं थक रहे थे कि उन्होंने टोपी की सियासत को विराम लगा दिया है। लेकिन टोपी के बजाए नए योद्धा आपस में ही एक दूसरे का सर कलम करने जैसी स्थितियां पैदा कर रहे हैं। आलम यह है कि चौतरफा चीत्कार मचा हुआ है। न शांता खेमा खुश है, न धूमल गुट और न ही तथाकथित जयराम खेमा। क्योंकि संगठन की सियासत चार पांच लोगों के हाथ में सिमट कर रह गयी है। आम कार्यकर्ता तो दूर अब बड़े नेता भी दबी ज़ुबान में कहने लगे हैं कि सब ठीक नहीं है। टिकटों का वितरण अगर दो सीटों के मामले में गले की फांस बन जाए तो 68 वाली स्थिति तक पहुँचते पहुंचते क्या होगा इसका अंदाजा सहज लगाया जा सकता है। अंग्रेजी में कहें तो यह वेक अप काल है। सिक्टा कौन है, दयाल प्यारी कौन है ?? राकेश चौधरी कौन है ??? इसका एक ही जवाब है --- ये बीजेपी हैं / ये विद्यार्थी परिषद् हैं। अगला सवाल है कि फिर ये सब क्यों बगावत पर उतरे हुए हैं ??/---जवाब है अनदेखी को लेकर। अब अगर यह जवाब संगठन शिल्पियों की समझ में आ जाये तो सही वरना बगावत की पवन तो चल ही निकली है और आम चुनाव आते आते आंधी भी बन सकती है।

दयाल प्यारी अरसे से वोट की सियासत में सक्रिय हैं। जिला परिषद की अध्यक्ष तक रह चुकी हैं। वैसे कुछ-कुछ इंदु गोस्वामी की शिकायत भी यही थी की उन्हें इग्नोर किया जा रहा था। इसी तरह आशीष सिक्टा ने भी संगठन के लिए जेल की हवा तक खाई। ऐसा भी नहीं है कि टिकट इनकी बपौती हो। लेकिन जो भ्रम की स्थिति बनाई वो तो उसी टीम ने बनाई जो आजकल पार्टी में तोप दाग रही है। इसी टीम ने इन लोगों को सीधे संकेत देकर जनसम्पर्क में लगाया गया था और जब ये अपने सम्पर्क अभियान में चरम पर पहुँचने वाले थे तो पैराशूट से किसी और को उतार दिया। ऐसा ही धर्मशाला में भी हुआ। हल्ला जिनके नाम का रहा टिकट उसके विपरीत किसी और को मिला। पार्टी की अपनी गणना हो सकती है उसपर हमारा टीका टिपणी करना जायज़ नहीं। जिन्हें टिकट मिला वे भी बेहतर नेता हो सकते हैं। लेकिन अब जो बगावत हुई है उसपर चर्चा तो बनती है। राकेश चौधरी पहले कांग्रेस में थे। उनको बीजेपी में लाया गया। अब वे बगावत पर हैं। मान गए तो ठीक, अड़े रहे तो ??? उधर किशन कपूर भी नाराज़ हैं। नामांकन पर धूमल की गैर हाज़िरी को लेकर भी चर्चा है। रंज तो शांता के मन में भी होगा क्योंकि उनकी सिफारिश नज़रअंदाज़ हुई है। यह दूसरी दफा है जब शांता को नज़रअंदाज़ किया गया है।

पिछली मर्तबा पालमपुर की टिकट शानता की मर्जी के खिलाफ दी गयी थी। हो सकता है यह शांता का दखल ख़त्म करने के लिए उठाया गया कदम हो और टीम जयराम समय रहते खुद को शांता-धूमल से अलग करके आगे बढ़ना चाहती हो। लेकिन अगर ये खेमे खम ठोक देंगे तो ?? यह भी सही है कि इन गुटों के बड़े नेता जयराम को सहयोग नहीं करेंगे। लेकिन आम कार्यकर्ता को भी अगर धड़ों में बांटकर चलेंगे तो फिर अपने लिए टीम कहाँ से आएगी। उस टीम को भी तो बीजेपी से ही आना है। इसलिए बेहतर होगा कि जयराम जी यह समझ लें कि नई बीजेपी नए लोगों से नहीं बल्कि पार्टी के भीतर मौजूद पुराने कार्यकर्ताओं की कर्मठता से ही बनेगी। उधार के नेता लाने से सब उधार में ही चला जाएगा। एक बात और इस सबके बीच जयराम ठाकुर सलीके से निरंकार बने हुए हैं। मानो उन्हें कुछ पता ही नहीं। हो सकता है ऐसा हो भी लेकिन इसे एक सीमा तक ही खूबी माना जा सकता है। बिलकुल अनभिज्ञ होना भी कष्टप्रद रहेगा। इसलिए मुख्यमंत्री को सरकार के साथ साथ अब संगठन पर भी पकड़ बनानी जरूरी है।

Ekta