Himachal: ला-नीना के प्रभाव से हो रही अधिक बारिश, आ रहे फ्लैश फ्लड, बादल फटने के बताए कारण
punjabkesari.in Tuesday, Sep 16, 2025 - 05:54 PM (IST)

पालमपुर (भृगु): ला-नीना के प्रभाव के कारण देश में औसत से अधिक बारिश हो रही है तथा अत्यधिक बारिश फ्लैश फ्लड का कारण बन रही है, वहीं भूस्खलन की घटनाओं में वृद्धि हो रही है। घाटियों में जनसंख्या बढ़ी है तथा निर्माण तेजी से हुआ है। ऐसे में तापमान में वृद्धि हुई है, जिसके परिणामस्वरूप बादल फट रहे हैं। मणिपुर विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त भू-वैज्ञानिक एवं गृह मंत्रालय द्वारा हिमाचल में प्राकृतिक आपदाओं की अध्ययन कमेटी के सदस्य प्रो. अरुण कुमार ने पंजाब केसरी से विशेष बातचीत में बादल फटने, भूस्खलन तथा क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति को लेकर महत्वपूर्ण जानकारी दी।
3 दिशाओं से आता है मानसून
प्रो. अरुण कुमार के अनुसार मानसून 3 दिशाओं से आता है। सिंगापुर से आरंभ होने वाला साऊथ मानसून देश के दक्षिणी भाग तक ही सीमित रहता है, वहीं वे ऑफ बंगाल से आरंभ होने वाला पूर्वी मानसून काफी ऊपर तक जाता है जो अब हिमालय को भी क्रॉस कर रहा है। वहीं दक्षिण-पश्चिम मानसून अधिक उग्र होता है। भूमध्य सागर पर इंडियन ओशन से पश्चिम विक्षोभ सक्रिय होता है। भूमध्य सागर में ऊपर का पानी ठंडा तथा नीचे का पानी गर्म है। वहीं इंडियन ओशन का पानी लगभग 27 डिग्री सैल्सियस तक गर्म है। ऐसे में जब इन दोनों का पानी आपस में मिलता है तो वाष्पीकरण होता है। जब वाष्पीकरण अधिक होता है तो दक्षिणी गोलार्द्ध में अधिक पानी बरसाता है, जिसे ला-नीना कहते हैं। इसके दृष्टिगत 150 से 200 प्रतिशत तक अधिक बारिश होती है तथा हिमाचल में वर्तमान में ऐसा ही हो रहा है।
हाईड्रोलॉजिकल साइकिल सक्रिय
हाईड्रोलॉजिकल साइकिल के कारण पानी अधिक बरस रहा है तथा अधिक बरसा पानी अपने साथ मिट्टी लेकर जा रहा है। इसलिए यह तबाही का कारण बन रहा है। हिमाचल में वर्ष 2018 से सितम्बर 2025 तक 148 बादल फटने की घटनाओं के अतिरिक्त 294 फ्लैश फ्लड तथा 5000 से अधिक भूस्खलन की घटनाएं इसी कारण हुई हैं। निचले बादलों को गहनता से मॉनीटर करने के लिए अभी तक देश के पास सैटेलाइट क्षमता नहीं है। यद्यपि ऊपर वाले बादलों की निगरानी पुख्ता की जा रही है।
नैटवर्किंग को पुख्ता बनाना होगा
प्रो. अरुण कुमार के अनुसार मौसम विज्ञान विभाग की नैटवर्किंग को और अधिक सघन बनाने की आवश्यकता है। वर्तमान में देश में लगभग 15,000 मॉनीटरिंग केंद्र हैं, जो बहुत कम हैं। ऐसे में स्थानीय वातावरणीय परिस्थितियों का पता लगाना कठिन हो रहा है। जबकि संवेदनशील स्थानों पर पानी का वेग तथा मात्रा जैसे बिंदुओं का पूर्व अध्ययन किसी भी परियोजना के क्रियान्वयन से पूर्व आवश्यक है।
संवेदनशील क्षेत्रों की मैपिंग आवश्यक
बादल फटना एक पुरातन प्राकृतिक अवधारणा है। नदियों के साथ की घाटी में मकान, दुकान, भवन व सड़क निर्माण के साथ खेती के लिए भूमि को समतल किए जाने व वन क्षेत्र में कमी के कारण घाटी का तापमान 31 से 34 डिग्री सैल्सियस तक पहुंच जाता है, जिस कारण वाष्पीकरण होता है। यह वाष्प पहाड़ी की चोटी तक पहुंचता है तो वहां पहले से ही दक्षिण-पश्चिम मानसून फ्लो कर रहा है। ऐसे में कुछ तापमान के मॉइश्चर का ठंडा दक्षिण-पश्चिम मानसून से मिलन होता है तथा एक वर्टिकल कलम बनता है। यह कलम 1 से 12 किलोमीटर क्योंचाय पर बन जाता है तथा 1 घंटे की अवधि में 4 से 5 किलोमीटर क्षेत्र में 100 मिलीमीटर बरसता है। जिस कारण पहाड़ी से तेजी से पानी नीचे की ओर चलता है तथा अपने साथ मिट्टी-पत्थर ले जाता है, जो तलहटी में बने भवनों को हानि पहुंचाता है। तलहटी में कितने संवेदनशील क्षेत्र हैं, इसकी मैपिंग आवश्यक है।
आर्टिफिशियल इंटैलीजैंस का हो उपयोग
वर्तमान युग प्रौद्योगिकी का है। एसएमएस का उपयोग किया जाना चाहिए। आदमी की समझ की एक सीमा है, जबकि आर्टिफिशियल इंटैलीजैंस उससे आगे है। कई देश में आर्टिफिशियल इंटैलीजैंस का उपयोग किया जा रहा है। बादल फटने जैसी घटनाएं इतनी जल्दी घटती हैं कि ह्यूमन मॉनीटरिंग संभव नहीं। ऐसे में इसके स्थान पर आर्टिफिशियल इंटैलीजैंस का उपयोग कर खतरे का सिग्नल प्राप्त किया जा सकता है।
पृथ्वी की गति हुई प्रभावित
चीन में 20,000 मैगावाट क्षमता का बांध बनने से पृथ्वी के घूमने की गति 0.003 सैकेंड से प्रभावित हुई। वहीं कुछ समय पहले सुमात्रा में 9.3 तीव्रता का भूकंप आने से भी पृथ्वी के घूमने की गति 0.003 सैकेंड प्रभावित हुई। पृथ्वी 84 से 86 डिग्री के एंगल पर खड़ी है, जिस कारण भी जलवायु परिवर्तन होता है। इसी कारण दक्षिण तथा उत्तरी गोलार्द्ध की प्रक्रियाएं होती हैं।
किस कारण हो रहे भूस्खलन
सड़क मार्गों के निर्माण के लिए कटिंग के अतिरिक्त ढलान वाले क्षेत्रों में भी भूस्खलन हो रहा है। जहां कटिंग के कारण 60 प्रतिशत भूस्खलन के मामले सामने आ रहे हैं, वहीं 40 प्रतिशत मामले ऐसे हैं, जहां कटिंग न होने के बावजूद भूस्खलन हुआ है। पहाड़ी ढलानों में फील्ड इन्वैस्टिगेशन महत्वपूर्ण है। इसके अंतर्गत ढलान की ऊंचाई कितनी है, उसमें कितना मैटीरियल है, पानी कितना निकल रहा है व ढलान की स्ट्रैंथ कितनी है। इसके लिए टोपोग्राफिक, जियोलॉजिकल, जिओ फिजिकल तथा जिओ टैक्नीकल सर्वे करना होता है। जिओ टैक्नीकल सर्वे सबसे अधिक खर्चीला होता है। इसके लिए बोरहोल कर पता लगाना होता है कि सतह के अंदर की स्थिति क्या है। प्रदेश में कुल्लू तथा मंडी घाटी भूस्खलन को लेकर अधिक सक्रिय हैं परंतु मंडी घाटी कल्लू की अपेक्षा और अधिक सक्रिय है।
उलटा खड़ा है हिमालय
देश के अरावली तथा दक्षिण भारतीय हिल क्षेत्र की अपेक्षा हिमालय में सबसे युवा चट्टानें सबसे नीचे हैं तथा सबसे पुरानी चट्टानें उसके ऊपर हैं। पुरानी चट्टानों लगभग 1500 मिलियन वर्ष पहले बनीं, जबकि 60-70 मिलियन वर्ष पहले बनी युवा चट्टानें के ऊपर आकर ये चट्टानें आकर बैठ गईं, जिस कारण इसका जियोलॉजिकल सैटअप अस्थिर है। इसके पीछे बड़ा कारण यह है कि 60-70 मिलियन वर्ष पुराने पहाड़ अभी तक ठीक ढंग से सैट नहीं हो पाए हैं। यही कारण है कि हिमालय के शिवालिक पहाड़ लेसर हिमालय के वजन को सहन नहीं कर पा रहे हैं। जबकि धौलाधार में पुरानी चट्टानें हैं और इसके भार से शिवालिक की चट्टानें खिसक रही हैं।