नजरिया : बिंदल के कमल हो जाने के मायने

Saturday, Jan 18, 2020 - 11:57 AM (IST)

शिमला (संकुश): तमाम चर्चाओं को  एक तरफ रखते हुए राजीव बिंदल अब हिमाचल बीजेपी के अध्यक्ष बन गए हैं। उन्होंने जहां करीब नौ साल से चले आ रहे सत्ती युग का पटाक्षेप किया है। वहीं उनके आने से प्रदेश बीजेपी में एक नए युग का भी आगाज हुआ है। नेताओं की सौम्य बयानबाजी के बीच एक बात तो तय है कि प्रदेश में दो साल पहले बीजेपी के भीतर जिस बदलाव का खाका संगठन के नीतिनियंताओ ने खींचा था उसमे अब अहम् परिवर्तन हुआ है। आम तौर पर जिस राज्य में भी पार्टी की सरकार होती है वहां अध्यक्ष ऐसा ही बनाया जाता है जो मुख्यमंत्री को सूट करता हो। खासकर बीजेपी में तो मुख्यमंत्री जिसे चाहते हैं  वही अध्यक्ष बनता है फिर चाहे वह खीमी राम ही क्यों न हो।

मुख्यमंत्री की संस्तुति को संगठन मान लेता है। ऐसे में इस बार बिंदल का चयन  कई नए संकेत लेकर आया है। सर्वविदित है कि  बिंदल मुख्यमंत्री  के कैंडिडेट नहीं थे। मुक्यमंत्री  और उनके पंचरत्न अलग से थे। उस सूची में  मीडिया से होते हुए कई नाम आये और गए। लेकिन यह तय है कि जो पांच नाम अंतत : मुख्यमंत्री और  निवर्तमान अध्यक्ष हाईकमान के समक्ष लेकर गए थे उनमे बिंदल कहीं नहीं थे। छह जनवरी की उस बैठक में पार्टी के  संगठन मंत्री भी  मौजूद थे। केंद्रीय हाईकमान ने उस समय यह पूछा कि  इन नामों में कौन ऐसा है जो पार्टी को चुनाव में अपने दम पर रिपीट करवाने की कूव्वत रखता है। उसे ही बना देते हैं। दिलचस्प ढंग से यह प्रश्न आने के बाद सेलेक्टर्स की टीम सकते में आ गयी थी, क्योंकि उनको पोपट चाहिए था जो उनकी भाषा का दोहराव करे। लेकिन हाईकमान ने यह तय कर लिया था कि अबके पोपट लाल  अध्यक्ष नहीं होगा। ऐसे में सेलेक्टर्स चुपचाप वापस आ गए और  हाईकमान ने उसी समय बिंदल को लेकर फैसला ले लिया।

सीएम को झटका

बिंदल के आने का पहला मतलब है सीएम जयराम ठाकुर को झटका। अब तक यह माना  जा रहा था (और ऐसा था भी ) कि हाईकमान पूरी तरह से मुख्यमंत्री  के साथ थी और उन्हें खुली छूट दी गयी थी. लेकिन दो साल के कार्यकाल में जिस तरह से सरकार की चाल रही है हाईकमान उससे खुश नहीं थी। विधानसभा चुनाव में नामित मुख्यमंत्री  के हारने (या हराने ) के बाद जयराम को इसलिए चुना गया था कि उम्र और अन्य चीज़ों के लिहाज़ से उनके पास इतना समय था जिस आधार पर बीजेपी उनके साथ कम से कम 15-20 साल तक चलने का प्लान बना सकती थी. लेकिन हाईकमान को दो साल में ही यह प्लानिंग जब फेल होती दिखी तो उन्होंने  डीपीआर में परिवर्तन करते हुए प्लानिंग में बदलाव कर दिया। अब ज्यादा फोकस बिंदल पर है. हालांकि चुनाव सरकार  की करनी पर ही लड़ा जाना है इसलिए देखना होगा कि उस नुकसान को बिंदल कितना कम कर पाते हैं जो हाईकमान को दो साल में होता दिखा।

विद्यार्थी परिषद पर भी लगाम

जयराम को खुली छूट के साथ ही यह भी तय हो गया था कि हिमाचल में बीजेपी नहीं एबीवीपी की सरकार बनी है। विशेष अधिकारी से लेकर  कौशल निगम के  कुशलकर्ताओं  तक तमाम नियुक्तियां विद्यार्थी परिषद् पर निसार हुई. तीन चौथाई  मंत्रिमंडल एबीवीपी से लिया गया। ऐसे में आधे से अधिक मंत्री ऐसे थे जो पहली बार शिखर सम्मेलन हाल को देख रहे थे और इन्हीं के जिम्मे हिमाचल को शिखर पर ले जाने की जिम्मेदारी भी रखी गई। लेकिन अनुभव आड़े आ गया और ये लोग सरकार और कालेज में फर्क करना भूल गए। इसका सीधा असर सरकार की छवि पर पड़ा और मृतप्राय विपक्ष नाटी किंग, खिचड़ी किंग, खनन किंग जैसे  मुद्दों को लेकर मुखर होकर उभर गया।

उधर बीजेपी के पुराने विधायक, नेता और कार्यकर्ता भी इस बात को हज़म नहीं कर पा रहे थे कि कल तक विधार्थी परिषद् के लिए उनसे ही चन्दा मांगने वाले आज उनके सामने ही सरकारी कोठी और कार में दनदनाने फिर रहे हैं। इससे पुराने लोगों में अवसाद बढ़ रहा था क्योंकि इससे पहले परिषद  का बीजेपी में समायोजन एक योजना के अनुसार और एक तय अनुपात में होता था। केवल काबिल को आगे लाया जाता था। ऐसे में  बीजेपी ने फिर से बच्चों (एबीवीपी) के बजाए बुज़ुर्गों की और लौटने का निर्णय लिया। हालांकि बीजेपी के दो तीन को छोड़ कर तमाम नेता एवीबीपी या संघ से ही सम्बंधित हैं लेकिन वर्तमान में स्थिति यह हो गयी थी की  बाप का जूता पैर  में आ जाने पर बच्चे खुद को बाप समझने लग गए थे।  इसलिए हाईकमान ने अब  यह फर्क बिंदल को लाकर स्पष्ट कर दिया है।

देर से आए, पर कितना दुरुस्त कर पाएंगे

बिंदल देर से आए हैं। वे तो चार साल पहले ही आ जाना चाहते थे जब फिर से सत्ती को अध्यक्ष बना दिया गया था। उस समय बिंदल नड्डा खेमे में  हो लिए थे। नड्डा तब पार्टी में महासचिव थे। लेकिन प्रदेश में अध्यक्ष के चयन में धूमल गुट के प्रभाव के आगे बिंदल चूक गए थे। हालांकि किसी समय धूमल ही बिंदल को तमाम विरोध के बावजूद विद्यानसभा लेकर आये थे। बिंदल संगठन के लिहाज़ से मंझे हुए  रणनीतिज्ञ भी हैं। लेकिन पिछली बार चयन के लिए अपनाए गए फार्मूले में वे कहीं फिट नहीं बैठे और चूक गए। अबके हाईकमान ने उनको लाकर कई पुराने फार्मूले भी नेस्तनाबूद कर दिए हैं.इसबार सीएम गुट दलित अध्य्क्ष का फार्मूला भी लेकर आया था  क्योंकि ब्राह्मण, राजपूत और क्षेत्रीय फार्मूले में उनको कोई अपना नहीं मिल रहा था।

इसलिए दलित अध्यक्ष का फार्मूला चलाया गया। लेकिन क्षेत्रीय, जातीय और अन्य तमाम फार्मूले बिंदल के आगे फीके पड़े। या यूं कह लें कि बिंदल के बहाने हाईकमान ने इन फार्मूलों से भी निजात पा ली। बिंदल जिस समुदाय से आते हैं उसकी संख्या मात्र डेढ़ फीसदी है। इस लिहाज़ से भी यह तय है कि बिंदल की नियुक्ति उनकी निजी कार्यक्षमता और दक्षता के आधार पर हुई है। इससे पहले ऐसा कमाल सत महाजन ने दिखाया था जो दो बार कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। बहरहाल बिंदल देर से आए हैं... कितना दुरुस्त कर पाएंगे यह देखना होगा। 

kirti