2 साल की बेटी से दुष्कर्म के आरोप में बेगुनाह निकला बाप, HC ने दिए ये आदेश

punjabkesari.in Sunday, Sep 24, 2017 - 12:28 AM (IST)

शिमला: प्रदेश हाईकोर्ट ने अपनी ही 2 वर्षीय बेटी से दुष्कर्म के निराधार आरोप में सजा काट रहे विवेक सिंह को निर्दोष ठहराते हुए उसे रिहा करने के आदेश जारी किए। न्यायाधीश धर्मचंद चौधरी व न्यायाधीश विवेक सिंह ठाकुर ने स्पैशल जज चम्बा के 12 अप्रैल, 2016 के फैसले को पलटते हुए ये आदेश पारित किए। निचली अदालत ने उसे 10 वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई थी। कोर्ट ने निचली अदालत के फैसले पर टिप्पणी करते हुए कहा कि इस मामले में न पुलिस और न ही ट्रायल कोर्ट ने तथ्यों व परिस्थितियों को बारीकी से परखा, जिस कारण एक निर्दोष पिता के पवित्र रिश्ते पर प्रश्नचिन्ह लग गया। 

शिकायतकर्ता ने झूठे केस में फंसाया पति
हाईकोर्ट ने पाया कि इस मामले की शिकायतकर्ता मां ने स्थानीय पुलिसवालों से मिलकर अपने पति को दुष्कर्म जैसे झूठे केस में फंसाया। निचली अदालत ने भी साक्ष्यों को गंभीरता से नहीं परखा जिसका परिणाम यह हुआ कि एक निर्दोष को सजा तो हुई ही, साथ में एक रिश्ता भी दागदार हुआ। हाईकोर्ट ने आइंदा से ऐसा न किए जाने की आशा प्रकट करते हुए कहा कि ऐसे मामलों की जांच करने वाली पुलिस, अभियोजन पक्ष और निर्णय करने वाले जज कानून के सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए अपने-अपने कत्र्तव्यों का निर्वहन करेंगे। मामले के अनुसार शिकायतकर्ता अंजू ने अपने पति पर अपनी 2 वर्ष से भी कम उम्र की बच्ची से दुष्कर्म करने का आरोप लगाते हुए डी.सी. चम्बा को पत्र लिखा। ए.डी.एम. चम्बा ने इस पत्र को चम्बा पुलिस थाने को भेजा जहां 10 फरवरी, 2015 को भारतीय दंड संहिता की धारा 376 व पोस्को अधिनियम की धारा 4 के तहत प्राथमिकी दर्ज की गई। पुलिस ने मामले की एक तरफा जांच करते हुए निचली अदालत में मुकद्दमा कायम किया। 

पुलिस ने मामले की तह तक जाने की नहीं उठाई जहमत
हाईकोर्ट ने पाया कि पुलिस ने मामले की तह तक जाने की जहमत भी नहीं उठाई और न ही शिकायतकर्ता व आरोपी के आपसी रिश्तों की छानबीन की। जांच अधिकारी ने शिकायतकर्ता से यह भी नहीं पूछा कि वह अपने पति से अलग क्यों रह रही थी। उसने यह जांचने की जहमत भी नहीं उठाई कि शिकायतकर्ता अपनी मां के साथ कितने समय से रह रही थी। उसने शिकायतकर्ता द्वारा आरोपी पति के पिता व भाई के खिलाफ  उसका यौन शोषण करने संबंधी दर्ज झूठी शिकायतों को जांचना भी जरूरी नहीं समझा। वास्तव में जांचकर्ता ने केवल शिकायतकर्ता की बातों पर विश्वास किया। हाईकोर्ट ने पाया कि निचली अदालत ने इन महत्वपूर्ण सवालों को नजरअंदाज करते हुए एक ऐसे मामले में बेकसूर को सजा सुना दी जिसमें कोई साक्ष्य थे ही नहीं।


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