वक्त के साथ बदलता गया दशहरे का स्वरूप

Monday, Sep 26, 2016 - 12:19 AM (IST)

कुल्लू: आधुनिकता के दौर में कुल्लू दशहरा उत्सव का स्वरूप बदल गया है। एक वक्त था जब दशहरे में विश्व प्राचीनतम गांव मलाणा के अधिठात्रा देवता जमदग्रि ऋषि व कमांद के पराशर ऋषि के अलावा सभी देवता भाग लेने आते थे। भेखलीधार में सदियों से विराजमान माता भुवनेश्वरी अपने मंदिर से कुछ दूरी तक आती हैं, जहां से ढालपुर मैदान दिखाई देता है और रघुनाथ जी के लिए केसर कटोरी भेजती है।


वर्ष 2005 में 194 देवी-देवता दशहरा उत्सव में शामिल हुए। करीब 20-25 देवता सरवरी नदी के किनारे आसन लगाते थे। कुछ देवी-देवता खराहल घाटी के अंगुडोभी स्थित अठारह करडू की सौह तक आते थे, जहां राजा रूपि जाकर पूजा करता था। वर्ष 1935 तक मोहल्ले के दिन सभी देवताओं की उपस्थिति अनिवार्य थी लेकिन अब सभी देवी-देवता लंका दहन के बाद ही अपने देवालय लौटते हैं।


एक समय था जब ऐतिहासिक मैदान ढालपुर में तेल-मिट्टी के दीपक हर स्थान पर टिमटिमाते थे। राजा के अस्थायी शिविर में तेल-मिट्टी व पीतल की मशालें होती थीं, जिनमें बार-बार तेल डालना पड़ता था, बाद में पैट्रोमैक्स (गैस) प्रचलन बढ़ा जिससे कहीं-कहीं रोशनी की जाती थी। वर्तमान में कलाकेन्द्र सांस्कृतिक गतिविधियों के कारण दशहरा में मुख्य आकर्षण बन जाता है। राजा कुल्लू तथा शांगरी के शिविरों में दिन में नाटियां तथा रात को रासलीला होती थी। हिरन नचाया जाता था और लोग अपने डेरे में नाचते थे तथा लड़कियां लालड़ी नाच करती थीं।


अब खेलों में मुक्केबाजी, वालीबाल, रस्साकशी व कबड्डी आदि खेले होती हैं। अब पशु मंडी ढालपुर के अंतिम छोर पर लगती है, पहले नदी के किनारे लगती थी। अब एक जैसे वस्तुओं के बाजार बनाए जाते हैं। पहले हर कहीं दुकानें लगाई जाती थीं जिस पर कोई टैक्स नहीं था। गांव के लोग पट्टू, पट्टियां, अखरोट व जड़ी-बूटियां बेचने के लिए आते थे तथा घर के लिए किलटे, सूप, छाननी, लोहे का सामान तथा अन्य जरूरत का सामान खरीदकर ले जाते थे। दूसरी ओर तिब्बत, समकद लद्दाख, यारकन्द व लाहौल-स्पीति से जुड़े होने के कारण दशहरा व्यापारिक मेले में बदल गया।


बिजली महादेव व माता हिडिम्बा की रहती है विशेष भूमिका
दशहरा उत्सव में निभाई जाने वाली सभी रस्मों में बिजली महादेव व माता हिडिम्बा की उपस्थिति अनिवार्य है। वैष्णव मत आने से पूर्व शैव मत तथा शाकत मत का इस क्षेत्र में प्रभाव था। वैष्णव मत के प्रति विरोध उपजने से पहले ही उनके अनुयायियों का तुष्टीकरण कर दिया गया। बिजली महादेव शैव मत तथा माता हिडिम्बा शाकत मत का प्रतिनिधित्व करती हैं। खराहल घाटी के देहणीधार, हलेणी, बंदल तथा सेऊगी गांव के लोग रघुनाथ जी के रथ तैयार करते हैं तथा इसकी मुरम्मत का कार्य करते हैं। लगघाटी के खणीपांदे के लोग लंका दहन के लिए कांटे तथा रावण के बुतों के लिए किलटे और मिट्टी के सिर लाते हैं। रावण के सिर बनाने का कार्य सारी के लोग करते हैं।


मकराहड़ में मनाया पहला दशहरा
17वीं शताब्दी में कुल्लू में वैष्णव मत का चलन हुआ। राजा की ओर से सभी वैष्णव उत्सव मनाए जाने लगे, जिनमें दशहरा प्रमुख था। वैष्णव मत के राजधर्म बनने और श्री रामजी की मूर्ति कुल्लू पहुंचने पर दशहरा उत्सव धूमधाम से मनाया जाने लगा। मूर्ति जुलाई 1651 को मकराहड़ राजभवन पहुंची। पहला दशहरा भी मकराहड़ में मनाया गया। 1653 में मूर्ति धार्मिक नगरी मणिकर्र्ण लाई गई और अद्र्धनारीश्वर शिव मंदिर में रखी गई, वहीं 1660 में कुल्लू लाई गई। उसी वर्ष से लेकर अब तक कुल्लू में दशहरा उत्सव धूमधाम से मनाया जाने लगा।