नज़रिया: पहाड़ी दिवस पर लें बोलियां बचाने का संकल्प

Thursday, Nov 01, 2018 - 01:22 PM (IST)

शिमला (संकुश): आज पहाड़ी दिवस है। यानी पहाड़ी बोली का दिन। आधिकारिक रूप से इसका आयोजन हर साल इसी दिन होता है, जबकि हम और आप रोज सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक पहाड़ी में ही जीते हैं। बीच में भले ही हिंदी, इंग्लिश, पंजाबी का झूला झूलते हों लेकिन यह तय है कि हम सबको नींद पहाड़ी में ही आती है। कौन सी पहाड़ी इसे लेकर कई आख्यान और व्याख्यान हो चुके हैं और होते रहेंगे। आधिकारिक रूप से पहाड़ी को भाषा का दर्जा दिलाने का परचम पूर्व सांसद नारायण चंद पराशर ने उठाया था। बरसों शिक्षा मंत्री रहे एन सी पराशर के प्रयास इसलिए फलीभूत नहीं हुए क्योंकि पहाड़ी के नाम पर किस बोली को भाषा माना जाए इस पर कोई सर्वसम्मत फैसला नहीं हो पाया। ऐसा संभव भी नहीं था क्योंकि जहां हर पांच कोस पर पानी और दस कोस पर वाणी यानी बोली बदलती हो, वहां किसी एक बोली को भाषा का दर्जा दिलवाना न तो संभव है और न ही श्रेयस्कर। 


खैर इस बहाने पराशर पहाड़ी बोली/बोलियों की तरफ ध्यान खींचने में जरूर कामयाब रहे जिसकी परिणति के रूप में आज पहाड़ी बोली दिवस मनाया जाता है। इसलिए आप भी खूब बोलिए। फिर चाहे वो चम्ब्याली, कांगड़ी, मंडयाली, कुल्लूवी, महसुवी, किन्नौरी हो या रोहड़ू, जुब्बल, शिलाई या किसी दूसरे क्षेत्र की बोली। आप जहां से हैं वहां की बोली बोलिए यह महत्वपूर्ण है। आज के दौर में इसलिए भी इसकी सख्त जरूरत है क्योंकि प्रदेश की एक नहीं चार-चार बोलियां विलुप्ति के कगार पर हैं। केंद्र सरकार का बोलियों को लेकर किया गया हालिया सर्वेक्षण कहता है कि देश भर में जो 200 बोलियां विलुप्त हो गई हैं या विलुप्ति के कगार पर हैं, उनमे से चार हिमाचली बोलियां भी हैं। केंद्रीय सूची के मुताबिक हिमाचल की पंगवाली, बघाटी ,सिरमौरी और हंडूरी विलुप्ति के कगार पर है। हालांकि मैं निजी तौर पर सिरमौरी और कुछ हद तक बघाटी को लेकर केंद्रीय मत से सहमत नहीं हूं लेकिन पंगवाली जरूर संकट में है। हंडूरी शायद सच में विलुप्त हो गई है।

यह बोली नालागढ़ इलाके की पुरानी हंडूर रियासत से सम्बंधित है जिसने अब लगभग पंजाबी का रूप ले लिया है। पंगवाली चंबा के जनजातीय इलाके से सम्बंधित है लेकिन साच दर्रे के उसपार ही दम तोड़ रही है। यहां तक कि जब पंगवाल चम्बा पहुंच जाते हैं तो वे खुद पंगवाली बोलने में शर्म महसूस करते हैं। बघाटी अभी भी सुनने को मिलती है लेकिन खतरे की घंटी यहां भी बज चुकी है। सिरमौरी इन चारों में अभी भी बेहतर स्थिति में है। लेकिन अगर केंद्र सरकार कह रही है कि इन बोलियों पर संकट है तो फिर इसे संजीदगी से लिया जाना चाहिए। मार्च माह में प्रदेश के भाषा संस्कृति विभाग ने इनको लेकर एक गोष्ठी भी करवाई थी। लेकिन उसकी सफलता का अंदाजा यहीं से लगाया जा सकता है कि महकमे की बड़ी मैडम को खुद भाषा और बोली का फर्क मालूम नहीं था। पूरे उद्बोधन में वे इन्हें भाषा ही कहती रहीं। हालांकि उस गोष्ठी में तुलसी रमण जैसे लेखकों/साहित्यकारों ने  एक छाप जरूर छोड़ी, एक राह जरूर दिखाई। उस पर कितना चलना है यह तो हमें और नई पीढ़ी को ही तय करना है। चलते हैं तो सही वर्ना जो आज पहाड़ी दिवस मना रहे हैं वे पहाड़ी स्मरण  दिवस मनाएंगे आगे चलकर।   

कैसे बचें बोलियां 
बोलियों को बचाना बड़ा आसान है, बल्कि मेरा मत है कि बोलियां मर ही नहीं सकतीं। क्योंकि वो हमारी सांस-सांस में निहित हैं। हम जितना मर्जी हिंदी, इंग्लिश के मोह में फंस लें यह सम्भव ही नहीं कि अपनी मां बोली न बोलें और आधुनिक युग में तो इनके विस्तार और संवर्धन के अनेकों  विकल्प मौजूद हैं। उदाहरण के लिए अगर पंगवाल तय कर लें कि वे आपस में तमाम सम्प्रेषण पंगवाली में ही करेंगे तो कौन है जो पंगवाली को मिटा पाए। युवा पीढ़ी को चाहिए कि वह परीक्षा/प्रतियोगिता की भाषाओँ के बीच आपसी संवाद अपन बोली में ही करें। महिलाएं खासकर गृहणियां व्हॉट्सऐप जैसे माध्यमों पर अपनी बोली में सम्पर्क करें। फिर देखें कैसे बोलियां बोलती हैं।   
 

Ekta