भगवान रघुवीर को मिंजर चढ़ाने के साथ चम्बा का अंतर्राष्ट्रीय मिंजर मेला शुरू

Monday, Jul 29, 2019 - 04:39 PM (IST)

चम्बा (विनोद): चम्बा जिला का ऐतिहासिक व अंतर्राष्ट्रीय मिंजर मेला रविवार को विधिवत रूप से शुरू हो गया। नगर परिषद चम्बा के कार्यालय से निकली मिंजर मेला की शोभायात्रा लक्ष्मीनाथ मंदिर से होती हुई ऐतिहासिक पिंक पैलेस पहुंची, जहां चम्बा के मिर्जा परिवार (मुस्लिम) द्वारा बनाई गई मिंजर को भगवान रघुवीर को अर्पित करने के बाद मेले का आगाज हुआ। शोभायात्रा में प्रदेश विधानसभा उपाध्यक्ष व चुराह के विधायक हंसराज ने बतौर मुख्यातिथि भाग लिया। बता दें कि मेले में बतौर मुख्यातिथि राज्यपाल कलराज मिश्र ने भाग लेना था लेकिन किन्हीं कारणों के चलते उनके न आने पर विधानसभा उपाध्यक्ष ने यह परंपरा निभाई। इस मौके पर सदर विधायक पवन नय्यर, डी.सी. चम्बा विवेक भाटिया, एस.पी. चम्बा डॉ. मोनिका, ए.डी.सी. चम्बा हेमराज बैरवा, नगर परिषद अध्यक्ष चम्बा नीलम नैय्यर सहित अन्य गण्यमान्य व्यक्ति मौजूद रहे।

28 जुलाई से 4 अगस्त तक चलेगा मेला

इस मौके पर मुख्यातिथि ने लोगों को संबोधित किया तथा मिंजर मेले की बधाई दी। ये मेला 28 जुलाई से 4 अगस्त तक चलेगा। मिंजर ध्वजारोहण के पश्चात ऐतिहासिक चंबयाली लोक गायन कुंजड़ी मल्हार को अजीत भट्ट एंड पार्टी द्वारा पेश किया गया। इसके पश्चात एतिहासिक चम्बा चौगान में विभिन्न सरकारी विभागों द्वारा लगाई गई प्रदर्शनी का उद्घाटन करते हुए विधानसभा उपाध्यक्ष ने उनका अवलोकन किया। मिंजर मेले के विधिवत शुभारंभ के साथ ही मेले के दौरान आयोजित होने वाली विभिन्न खेल प्रतियोगिताएं भी शुरू हो गईं।

400 साल से निभाई जा रही परंपरा

देवभूमि हिमाचल में यूं तो कई मेले और त्योहार मनाए जाते हैं लेकिन चम्बा जिले का अंतर्राष्ट्रीय मिंजर मेला सबसे अलग है। हिंदू-मुस्लिम भाईचारे का प्रतीक चम्बा जिला का अंतर्राष्ट्रीय मिंजर मेला प्रदेश में ही नहीं बल्कि पूरे देशभर में प्रसिद्ध है। इस मेले की खास बात ये है कि यहां मिर्जा परिवार के सदस्य मिंजर बनाते हैं। मुस्लिम परिवार द्वारा बनाई गई मिंजर को लक्ष्मी-नारायण मंदिर में चढ़ाया जाता है। रेशम के धागे और मोती पिरोकर बनाई गई मिंजर को चढ़ाने के बाद ही मिंजर मेला शुरू होता है। मिर्जा परिवार द्वारा मिंजर बनाने की ये परंपरा करीब 400 साल से निभाई जा रही है।

मेले में देखने को मिलती है धर्म निरपेक्षता की झलक

यह मेला श्रावण मास के दूसरे रविवार को शुरू होकर सप्ताह भर चलता है। मेले की शुरआत मिंजर चढ़ाने के साथ होती है और उसके बाद अखंड चडी महल में पूजा-अर्चना की जाती है। इसके बाद ऐतिहासिक चंबा चौगान में मिंजर का ध्वजारोहण किया जाता है। 2 समुदायों की एकजुटता के मिसाल इस मेले से धर्म निरपेक्षता की झलक देखने को मिलती है। कहा जाता है कि जब राजा पृथ्वी सिंह शाहजहां के शासनकाल में भगवान रघुवीर की मूर्ति को चम्बा लाए थे तो शाहजहां ने मिर्जा साफी बेग को रघुवीर के साथ राजदूत के रूप में भेजा था। मिर्जा साफी बेग जरी-गोटे के काम में माहिर थे। उन्होंने ही जरी की मिंजर बनाकर रघुवीर जी, भगवान लक्ष्मीनारायण और राजा पृथ्वी सिंह को भेंट की थी। तबसे लेकर आज तक मिंजर मेले का आगाज मिर्जा परिवार के वरिष्ठ सदस्य द्वारा रघुवीर जी को मिंजर भेंट करने पर ही होता है।

क्या है मिंजर?

चम्बा में स्थानीय लोग मक्की और धान की बालियों को मिंजर कहते हैं। इस मेले का आरंभ रघुवीर जी और लक्ष्मीनारायण भगवान को धान और मक्की की मिंजर या मंजरी, मिंजर को लाल कपड़े पर गोटे से जड़कर, नारियल और ऋतुफल भेंट किए जाते हैं। इस मिंजर को एक सप्ताह बाद रावी नदी में प्रवाहित किया जाता है। इन बालियों को स्थानीय भाषा में मिंजर या मंजर कहा जाता है, इसी कारण इस मेले का नाम भी मिंजर पड़ा। एक और लोक कथा के अनुसार मिंजर मेले की शुरुआत 935 ई. में हुई थी। जब चम्बा के राजा त्रिगर्त के राजा जिसका नाम अब कांगड़ा है, पर विजय प्राप्त कर लौटे थे तो स्थानीय लोगों ने उन्हें गेहूं, मक्की और धान की मिंजर (बालियां) और ऋतुफल भेंट करके खुशी मनाई थी, जिसे बाद में हर साल मनाया जाने लगा।

ऐसे मनाया जाता है मिंजर मेला

मिंजर मेले में पहले दिन भगवान रघुवीर जी की शोभायात्रा निकलती है। इसे चम्बा के ऐतिहासिक चौगान तक लाया जाता है, जहां से मेले का आगाज होता है। भगवान रघुवीर जी के साथ आसपास के 200 से अधिक देवी-देवता भी चौगान में पहुंचते हैं। मिर्जा परिवार सबसे पहले मिंजर भेंट करता है। उस समय घर-घर में ऋतुगीत और कुंजड़ी-मल्हार गाए जाते थे। अब स्थानीय कलाकार मेले में इस परंपरा को निभाते हैं। मिंजर मेले की मुख्य शोभायात्रा राजमहल अखंड चंडी से चौगान से होते हुए रावी नदी के किनारे तक पहुंचती है। यहां मिंजर के साथ लाल कपड़े में नारियल लपेट कर, फल-मिठाई नदी में प्रवाहित की जाती है। इस मेले में कई बदलाव भी हुए हैं, पहले मिंजर विसर्जन के दौरान सिर्फ रघुनाथ जी की पालकी ही मिंजर यात्रा के साथ चलती थी, बाद में प्रशासन ने स्थानीय देवी-देवताओं को भी इस यात्रा में शामिल करने की इजाजत दी। मिंजर की शोभायात्रा मेले के अंतिम दिन पूरे राजशाही अंदाज में निकाली जाती है और मंजरी गार्डन में मिंजर को प्रवाहित किया जाता है।

पहले दी जाती थी भैंसे की बलि

1943 तक मिंजर मेले में भैंसे की बलि देने की प्रथा थी। इसके अनुसार जीवित भैंसे को नदी में बहा दिया जाता था। यह आने वाले साल में राज्य के भविष्य को दर्शाता था। अगर पानी का बहाव भैंसे को साथ ले जाता था और वह डूबता नहीं था तो उसे अच्छा माना जाता था। यह माना जाता था कि बलि स्वीकार हुई। अगर भैंसा बच जाता और नदी के दूसरे किनारे चला जाए तो उसे भी अच्छा माना जाता था कि दुर्भाग्य दूसरी ओर चला गया है। अगर भैंसा उसी तरफ वापस आ जाता था तो उसे बुरा माना जाता था। अब भैंसे की जगह सांकेतिक रूप से नारियल की बलि दी जाती है। विभाजन के बाद पाकिस्तान गए लोग भी रावी नदी के किनारे मिंजर प्रवाहित करते हैं और कुंजड़ी-मल्हार गाते हैं। 1948 से रघुवीर जी रथयात्रा की अगुवाई करते हैं।

Vijay