यहां मरने से पहले ही निभाई जाती हैं मरने के बाद की रस्में

Monday, Dec 04, 2017 - 12:15 AM (IST)

कुल्लू: शीत मरुस्थल के नाम से विख्यात स्पीति घाटी न जाने कितनी ही सांस्कृतिक विविधताओं को खुद में समेटे हुए है, जिनके बारे में बाहरी दुनिया के लोग शायद बहुत कम जानते हैं। स्पीति घाटी की संस्कृति में तिब्बत की संस्कृति की झलक भी देखने को मिलती है। एक ऐसी ही परंपरा जोकि अभी चलन में नहीं है, मगर आज भी स्पीति घाटी की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। यूं तो हमारे समाज में अगर किसी का देहांत हो जाए तो मृतक की आत्मा की शांति के लिए न जाने कितनी ही रस्मों को करवाया जाता है, जिनके पीछे यही तर्क दिया जाता है कि इन रस्मों को सही ढंग से करने पर मृतक की आत्मा को शांति मिलेगी और उसे सद्गति की प्राप्ति होगी। स्पीति घाटी में भी मृतक की आत्मा की शांति के लिए कई तरह की रस्मों का निर्वहन किया जाता है और बौद्ध धर्म के अनुसार बौद्ध भिक्षुओं के द्वारा पवित्र मंत्रों और पूजा-पाठ से मृतक की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की जाती है। मगर एक ऐसी परंपरा जिसका चलन तिब्बत से शुरू हुआ था, वह स्पीति में अभी भी जिंदा है, मगर उस परंपरा का पालन कुछ ही लोग कर रहे हैं। इस रस्म को स्पीति की बोली में सोनचोक और तिब्बती भाषा में सोनग्हेय कहा जाता है।

यह है सोनग्येह रस्म 
 सोनग्येह एक ऐसी रस्म का नाम है, जहां पर किसी के मरने से पहले ही मरने के बाद की रस्मों को उक्त व्यक्ति के लिए करवा दिया जाता है। या यूं कहें कि एडवांस में ही इस रस्म को निभाया जाता है वह भी जिसके लिए करवाया जाता है, उसकी सहमति से ही। जी हां सुनने में अटपटा जरूर है मगर यह सबसे पहले तिब्बत के समाज में चलन में था और वहां से यह रस्म स्पीति की पिन घाटी में पहुंची और पिन घाटी के लोग आज भी इस रस्म को निभा रहे हैं। सोनग्येह 2 शब्दों को जोड़ कर बनाया गया शब्द है जहां पर सोनपो यानि जिंदगी और गेवा मतलब दान या पुण्य, यानि जीते जी पुण्य कमाना या पुण्य कमाने की कामना रखना। इस रस्म को कोई भी करवा सकता है और इसको करवाने की इच्छा रखने वाला व्यक्ति अपने जीते जी ही अपने नाम पर मरने के बाद की रस्मों को निभाता है, ताकि उसके मन में कोई मलाल न रहे कि उसके मरने के बाद उसके लिए की जाने वाले रस्म में कोताही बरती है। इस मामले में उक्त व्यक्ति खुद अपनी रस्म का गवाह होता है। स्पीति में अब भी बहुत से परिवार ऐसे हैं, जहां पर बहुत से लोगों ने इस रस्म को निभाया है और जिनके लिए इस रस्म को करवाया है, वे भी संतुष्ट हैं।

तिब्बत से स्पीति पहुंची रस्म
लाहौल-स्पीति के वरिष्ठ और विख्यात इतिहासकार छेरिंग दोरजे सोनग्येह परम्परा के बारे में बताते हैं कि यह परंपरा तिब्बत में 200-300 साल पहले से चली आ रही है और स्पीति में यह परंपरा सिर्फ पिन वैली में ही चलन में थी। उन्होंने बताया कि यह परंपरा लाहौल-स्पीति की संस्कृति की विलुप्त हो रही प्रथा है, जिसके बारे में शायद अब बहुत कम लोग जानते हैं। छेरिंग दोरजे बताते हैं कि आज से लगभग 80-90 साल पहले तिब्बत के चीफ ऑफ आर्मी दामदुल थारूंग ने इसी परंपरा का निर्वाह कर समाज में एक अनोखा संदेश जारी किया था। उन्होंने बताया कि दामदुल थारूंग ने इस रस्म को निभाते हुए अपने जीवन में अर्जित की सारी संपत्ति को इकट्ठा करके और लगभग 400 लोगों की मदद से तिब्बत के लहासा में 3 दिनों तक उस अकूत संपत्ति का प्रदर्शन किया था और उसके बाद उन्होंने उस संपत्ति को 13वें दलाईलामा को चढ़ाया था। इस संपत्ति का प्रदर्शन करने के पीछे एक ही मकसद था कि लोग यह समझें कि जिस तरह से हम जिंदगी भर धन को अर्जित करते हुए सब कुछ भूल जाते हैं और अच्छे और बुरे दोनों तरीके से धन को कमाने की होड़ में लग जाते हैं तो ऐसे में एक वक्त ऐसा भी आता है, जब उस धन का कोई मतलब ही नहीं रह जाता और वह हमारे लिए व्यर्थ हो जाता है। उस धन का एक टुकड़ा भी हम अपने साथ नहीं ले जा सकते, इसलिए धर्म के मार्ग पर चलते हुए और सच्चाई की राह को अपनाते हुए हमें अपने जीवन में पुण्य कमाने पर भी विचार करना चाहिए और जीवन को सार्थक करते हुए सच्चाई व धर्म के मार्ग पर चलते रहना चाहिए।