नज़रिया: भांग की खेती पर मदहोश होकर न सोचा जाए

Tuesday, Nov 13, 2018 - 02:31 PM (IST)

शिमला (संकुश): इसी साल 5 जुलाई को उत्तराखंड सरकार ने जब भांग की खेती के लिए भारतीय औद्योगिक भांग संघ (आईआईएचए) के साथ एमओयू किया था तो  उसने खूब सुर्खियां बटोरी थी। कारण अपने देश में पहली बार भांग की खेती को कानूनी मान्यता मिली थी। आईआईएचए का उत्तराखंड में औद्योगिक भांग की खेती में शुरूआती तौर पर 1100 करोड़ का निवेश प्लान है और पहले चरण में 10,000 हेक्टेयर भूमि पर औद्योगिक भांग की खेती उत्तराखंड में शुरू होनी  है। संघ पहले वहां औद्योगिक भांग के बीज तैयार करेगा और फिर उसे किसानों में बांटेगा। 

दिलचस्प ढंग से अभी उस पायलट प्रोजेक्ट के परिणाम आने बाकी हैं लेकिन अब यूपी और हिमाचल में भांग की खेती को मान्यता देने की चर्चाएं जोरों पर हैं। हमें यह तो नहीं मालूम की भांग की खेती का बीजेपी सरकारों से क्या कनेक्शन है लेकिन फिर भी यह संयोग ही है कि इन राज्यों में बीजेपी की सरकारें ही हैं। ऐसे में कोई बड़ी बात नहीं कल को इस पर सियासत तेज हो और कुछ रोचक आरोप-प्रत्यारोप भी सामने आ जाएं। खैर अब जहां भांग को लीगल स्टेटस देने की बात की जा रही है वहां आजकल भांग के औषधीय गुणों को वांचने का काम जोर शोर से एक वर्ग विशेष कर रहा है। हालांकि लोग विरोध में भी मुखर हैं।  

विवाद की वजह यह है कि भांग को हमेशा से ही नशे के रूप में देखा गया है। बेशक हिमाचल के पूर्व बीजेपी अध्यक्ष और कांग्रेस के एक वर्तमान विधायक (और कुछ अन्य नेता भी) आज भांग के गुण बघार रहे हों लेकिन तल्ख़ हकीकत यही है कि उन्हें भी शायद हिमाचल में किसी ऐसी फार्मेसी का नाम मालूम हो जहां दवा में भांग समाहित की जाती हो। दिलचस्प ढंग से प्रदेश सरकार के अपनी फार्मेसी में यह काम नहीं होता।  ऐसे में भांग की खेती से कितना, कैसा और कब लाभ होगा यह निश्चित ही मंथन का विषय होना चाहिए। 

हम भांग के औषधीय गुणों या अन्य व्यावसायिक उपयोगों से कतई इंकार नहीं कर रहे, लेकिन यह भी तो शाश्वत सत्य है कि हमारे यहां खासकर हिमाचल प्रदेश में भांग की खेती दवा के लिए विख्यात न होकर नशे के लिए ही कुख्यात है। आज आप दुनिया के किसी भी कोने मैं बैठकर भांग के बारे में सर्च करेंगे तो हिमाचल का नाम आएगा ही। यहां भांग का नशे के लिए प्रयोग इतना व्यापक है कि  हर साल पुलिस खुद हज़ारों बीघा से भांग नष्ट करने में अपनी ऊर्जा लगाती है। यह भांग ऐसी ज़मीन से काटी जाती है जो मिल्कीयत नहीं होती तो फिर जब भांग की खेती वैध हो जाएगी तब क्या स्थितियां होंगी उसकी कल्पना भी की जा सकती है और कर ही लेनी चाहिए। 

किस भांग की होगी खेती ???
यह जान लेना भी जरूरी है कि भांग की खेती में आपके घरों के पिछवाड़े बरसात में खुद उगने वाली भांग से पैसा मिलेगा या किसी और तरह की भांग से ??? 
दुनिया भर में दवा उद्योग में जो भांग शामिल की जाती है उसमें 0.30 फीसदी टीएचसी (टेट्राहाइड्रो कैनीबीनॉल यानी नशे की मात्रा) पाई जाती है। जबकि अभी हिमाचल में जो भांग उगती है उसमें न्यूनतम टीएचसी 30 है जो टोपोग्राफी के अनुसार अधिकतम 70 भी हो सकती है। माहिरों के मुताबिक यह घुलनशीलीय नहीं है। यानी ऐसा नहीं है। जाहिर है ये वो भांग नहीं है जिसकी खेती की बात हो रही है या होगी। हमने ऊपर भी इसीलिए 'औद्योगिक भांग' शब्द का इस्तेमाल किया है और उस औद्योगिक भांग का बीज अभी उत्तराखंड में भी तैयार नहीं हुआ है और अगर यह समझा जा रहा है कि हाथों से मलकर बठियां तैयार करके उन्हें सरकार को बेचकर पैसा मिलेगा तो वो सोच सर्वथा हास्यास्पद है। औद्योगिक भांग नियंत्रित वातावरण और सीमित मात्रा में ही उगाई जाएगी। इसे किसान गेंहूं, मक्की की तरह नहीं बीज सकेंगे उसकी अनुमति नहीं मिलेगी। उत्तराखंड में भी सीधे किसानों को इसकी मंजूरी न देकर एक कम्पनी को यह काम सौंपा गया है। यानी स्थानीय लोग बस बीजने, काटने का काम करने तक सीमित रहेंगे या फिर ज्यादा से ज्यादा ज़मीन किराए पर देने का लाभ उठा पाएंगे। वैसे भी हिमाचल में अभी उगने वाली भांग से रेशे ही उत्पादित हो सकते हैं और यह कुटीर उद्योग कितना और किस अवस्था में है यह भी शोध का विषय है।    

क्या है भांग का इतिहास 
भांग का वैज्ञानिक नाम कैनावीस साटाइवा है तथा यह कैनावेसी कुल का पौधा है। मुख्य रूप से भांग की दो प्रजातियां पाई जाती हैं। कैनावीस इंडिका जो कि छोटा तथा गहरे हरे रंग का पौधा होता है तथा कैनावीस सटाइवा जो कि अत्याधिक मात्रा में पाया जाता है। भांग के बारे में उपलब्ध लेख बताते हैं कि आज से 10 हजार वर्ष पूर्व भी भांग प्रचलन में थी। जर्मन शोधकर्ता टेंग्वेन लॉन्ग के अनुसार भी यह पाषाण कालीन खेती है। हालांकि तब इसका प्रयोग नशे के लिए नहीं बल्कि रेशों और सीमित मात्रा में पोषक भोज्य पदार्थों के लिए किया जाता था। एक अन्य शोध के मुताबिक नशे के लिए शराब  के उपयोग से भी करीब तीन हज़ार पहले कबायली भांग का नशा करते थे। शराब ईरान से आई तो भांग को मूलत: यूनान से जोड़ा जाता है। अपने देश में भांग को सीधे-सीधे शिव भगवान् से जोड़ा गया है, हालांकि शिव पुराण तक में इसका उल्लेख नहीं है कि  शिव भांग का सेवन करते थे। हो सकता है यह काम उन लोगों ने किया हो जो भांग पीना चाहते थे लेकिन उसका लीगल एंगल ढूंढ रहे थे और वो उनको शिवजी में नजर आया हो। इसी तरह बड़ा सवाल यह भी है कि वर्तमान में भी कहीं दवा और औषधीय प्रयोग की आड़ में नशा माफिया ही तो लाभान्वित नहीं होने वाला ??? 

कहां-कहां होती है भांग की खेती ??
दुनिया के करीब 170 देशों में भांग की खेती होती है। चीन, कनाडा और फ्रांस में इसकी खेती रेशे के लिए की जाती है। यूके, रोमानिया, हंगरी, कोरिया तथा अन्य कई देशों में भांग का औद्योगिक उत्पादन किया जाता है। वर्तमान में सम्पूर्ण विश्व में कनाडा में भांग का सर्वाधिक क्षेत्रफल पर उत्पादन किया जाता है। इससे उत्पादित होने वाले लगभग 20,000 से अधिक उत्पादों को औद्योगिक रूप में तैयार किया जाता है। चीन में  इससे बायोप्लास्टिक भी बनाया जा रहा है एवं औषधीय प्रयोग के लिए भांग के बीज से तैयार होने वाले तेल की कीमत का 20,000 से 25,000 रुपए प्रति किलोलीटर तक है। लेकिन इसकी प्रक्रिया भी उतनी ही खर्चीली है। भारत में तो अभी भांग के बीजों का तेल निकालने का कोई कारखाना मौजूद नहीं है। चुनिंदा आयुर्वेदिक फार्मेसियों में जरूर भांग के बीज और अन्य रूपों का इस्तेमाल होता है। रेशे के लिए इसका प्रयोग अब नगण्य ही है। पहले यह गांव देहात में होता था लेकिन आधुनिक वस्त्र रेंज ने इसे हाशिए पर धकेल दिया।   

ऐसे मिलती है भांग की खेती की अनुमति
नार्कोटिक्स ड्रग्स ऐंड साइकोट्रॉपिक सब्सटेंसेज ऐक्ट, 1985 (एनडीपीएस अधिनियम) केंद्र सरकार को बागवानी और औद्योगिक उद्देश्य के लिए भांग की खेती की अनुमति देने का अधिकार देता है, लेकिम इस खेती में सबसे बड़ी बाधा है। साइकोएक्टिव तत्व की उचित जांच की समस्याओं और तकनीक आधारित मानक का न होना। एनडीपीएस ऐक्ट में कहा गया है, ‘केंद्र सरकार कम टीएचसी मात्रा वाली भांग की किस्मों पर अनुसंधान और परीक्षण को प्रोत्साहित करेगी। हालांकि केंद्र बागवानी या औद्योगिक उद्देश्य के लिए भांग की खेती के लिए ठोस अनुसंधान के नतीजों के आधार पर फैसले लेगा।' उत्तराखंड में आईआईएचए को खेती के लिए अनुमति देने के लिए उत्तराखंड सरकार ने एसोसिएशन द्वारा किए गए ठोस रिसर्च को आधार बनाया है। अब हिमाचल सरकार क्या करती है यह देखना होगा।  

Ekta